रविवार, 20 जून 2010

मुझे है जीने के लिए ज़हर की ज़रुरत
सुना है ये जान भी लेती है..
ऐ माता तेरे भी देखे है रूप अनेक
कभी स्तनपान तो कभी वनवास भी देती है

,वर्षा कि आंस में देखे है आंसू किसान के
कभी अमृत जल तो कभी बाढ़ का विनाश भी देती है
है जीने के लिए सभी को रिश्तों की ज़रुरत
तो कभी वो बेड़ियों से बाँध भी देती है...

युवती के प्रेम ने कभी भवसागर पार लगाया है
कभी ये अन्य रिश्तों को बिगाड़ भी देती है
परायी स्त्री ने सदियों से तोड़े है अनेक घर
वहाँ से बस मातम की चीत्कार सुने देती है

,विज्ञानं की मदद से चाँद पर पहुँच रहे है इंसान
पर इंधन की मार से पर्यावरण की दहाड़ निकल पड़ती है
आधुनिकता की चमक से चमचम रहे है अनेक सेहर
कहीं दो वक़्त की रोटी भी ना जुगाड़ पड़ती है ...


,पाश्चात्य सभ्यता का अन्धानुकरण कर रहा है सारा संसार
अपनी संस्कृति की खनकार ना सुनी देती है ......
इश्वर की श्रेष्ठ सृष्टी कहलाने वाले ओ इंसान
वर्तमान परिवेश में चछु तुम्हारे दीदार को तरस जाती है



अतः ज़हर से बच तो जाओगे हे मुष्य
अपने अन्दर के विष से कब तक बच पाओगे ..
,तुम अपना ,अपने परिवेश और अपनी समझ का ही नहीं
,संपूर्ण सृष्टी का विनाश कर ही जाओगे
..
आनंद शेखर